शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

बेहद sharmnak

बुधवार ८ जलाए को प्रवेश के लिए इलाहबाद विश्वविद्यालय गई एक छात्रा को कुछ शोहदे दिनदहाडे उठा ले जा रहे थे । वहां मौजूद तमाम छात्र और दूसरे लोग तमाशबीन बने रहे । मजबूर छात्रा ने कमिश्नर आवास में घुसकर किसी तरह अपनी इज्जत बचाई । बाद में पहुँची पुलिस सिर्फ़ लीपापोती और मामले पर परदा डालने की कोशिश में लगी रही । इसी तरह शनिवार को संगम तट पर गुंडों नें छेड़खानी का विरोध करने पर सरेआम श्रद्धालु महिलाओं और उनके साथ आए लोगों की डंडों और बेल्ट से पिटाई की । यह दोनों शर्मनाक घटनाएँ यह बताने के लिए काफी है की उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था कितनी गिर चुकी है और अपराधियों के हौसले कितने बुलंद हैं ।

बुधवार, 8 जुलाई 2009

ओम जी का 'रामलाल' अनाथ हो गया

हास्य-कवि ओम व्यास 'ओम' का देहावसान

स्मृति जोशी
कवि ओम व्यास ' ओम' हम सबकी हजार-हजार दुआओं के बाद भी नहीं रहे। प्रदेश के सितारें, उज्जयिन‍ी का गौरव, मोहल्ले की मुस्कुराहट और काव्य सभाओं का आधार स्तंभ ओम जी जैसा सच्चा और प्यारा इंसान चला गया इस पर विश्वास करना वाकई मुश्किल है।
आज मेरे शहर का सच्चा सपूत मौन हो गया। आज कालिदास की धरा पर अगर बादल जम कर बरसें तो आश्चर्य मत कीजिएगा। उन्हें बरसने दीजिएगा। आज कौन काव्य-प्रेमी खुद पर नियंत्रण कर पाएगा? आज ओम जी का 'रामलाल' अनाथ हो गया। आज देश का हर काव्य मंच वीरान हो गया।
विगत दिनों 8 जून को हुई दुर्घटना में देश के तीन होनहार कवि काल-कवलित हो गए। विदिशा के बेतवा महोत्सव में आयोजित कवि सम्मेलन से लौटते हुए यह दुर्घटना हुई थी। ओमप्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड़ सिंह गुर्जर इसमें चल बसें। व्यास जी जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करते रहे। हम सभी मानसिक रूप से इस खबर को लेकर आशंकित थे कि यह मनहूस खबर दस्तक दे सकती है।

खुद को इतना-इतना तैयार करने के बावजूद आज इस सूचना से काव्यप्रेमियों के मन टूट गए। जब भी मन इस खबर को लेकर डरता, मन के ही किसी कोने से विश्वास की कोंपल उठ जाती कि उन्हें होश आ गया है, अब कुछ नहीं होगा। कुछ दिनों के आराम के बाद वे फिर अपनी रसीली, चुटीली, चुस्त और गुदगुदाती कविताओं के साथ मंच पर मनभावन उपस्थिति देंगे। लेकिन काल के क्रूर कानों तक हमारी आस और आवाज नहीं पहुँची।

दिल्ली के अपोलो अस्पताल में कल हास्य-जगत का रोशन सितारा डूब गया। आज याद आ रहे हैं उनके तिलक, चोटी, रूद्राक्ष और चश्मा। याद आ रही हैं उनकी पिता और माता पर लिखी कविता, याद आ रहा है उनका सदाबहार कॉमन कैरेक्टर रामलाल, और याद आ रहा है उज्जैन के प्रति उनका अगाध स्नेह। उनकी पिता पर लिखी कविता की पंक्तियाँ हैं -

पिता अप्रदर्शित-अनंत प्यार है,
पिता है तो बच्चों को इंतज़ार है,
पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं,
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं,
पिता से परिवार में प्रतिपल राग है,
पिता से ही माँ की बिंदी और सुहाग है,
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है,
पिता गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है।

क्या ये गहन गंभीर उदगार सिर्फ हास्य कवि के हैं? वास्तव में उस अदभुत प्रतिभाशाली कलाकार को सही मायनों में पहचाना ही नहीं गया। या कहें कि उन्होंने स्वयं अपनी संवेदनशीलता और मासुमियत, भावनाओं की गहराई और कोमलता को हास्य का झीना आवरण पहना रखा था। गाहे बेगाहे उनके भीतर उमड़ते कलकल-छलछल करते अनुभूतियों के झरने मंच से काव्य-प्रेमियों तक बह कर चले आते और यकीन मानिए कि महीनों तक तृप्त करने की क्षमता रखते।

माँ पर लिखी उनकी कविता ने कितने ही पत्थर दिलों को पिघलाया था। जिन्होंने उन्हें प्रत्यक्ष सुना वे नहीं कह सकते कि कविता को सुनते हुए उनकी पलकें कोरी थी। उनके एक-एक शब्द में भीतर तक भीगों देने वाली ताकत थी।

नम आँखों से इन पंक्तियों को पढ़ें :

माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है,
माँ, माँ फूँक से ठँडा किया हुआ कलेवा है,

माँ, माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,
माँ, माँ जिंदगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है,

माँ, माँ चूडी वाले हाथों के मजबूत कंधों का नाम है,
माँ, माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है,

माँ, माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,
माँ, माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है,

माँ, माँ चुल्हा-धुँआ-रोटी और हाथों का छाला है,
माँ, माँ ज़िंदगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है।

इस भावप्रवण रचना के बाद कुछ नहीं बचता उस अप्रतिम कवि के प्रति कुछ कहने को। उनका काव्य सहज सक्षम है यह अहसास दिलाने में कि माँ शारदा का कितना मधुर आशीर्वाद था उनकी लेखनी और वाणी को।

आज मेरे शहर का सच्चा सपूत मौन हो गया। आज कालिदास की धरा पर अगर बादल जम कर बरसें तो आश्चर्य मत कीजिएगा। उन्हें बरसने दीजिएगा। आज कौन काव्य-प्रेमी खुद पर नियंत्रण कर पाएगा? आज ओम जी का 'रामलाल' अनाथ हो गया। आज देश का हर काव्य मंच वीरान हो गया।

बुधवार, 1 जुलाई 2009

षडऋतुओं का दर्शन.....दादुर मोर कोकिला पीऊ, गिरै बीज घट रहे न जीऊ

-शंभूनाथ शुक्ल-

आठ अप्रैल को मौसम विज्ञान विभाग ने कहा था कि इस साल मानसून वक्त से पहले आ रहा है, बारिश अच्छी होगी। लेकिन ढाई महीने बाद 24 जून को वही मौसम विभाग कह रहा है कि मानसून डिले है और बारिश भी इस साल कम होगी। मौसम विभाग की किस भविष्यवाणी को सही माना जाए यह समझ से परे है। यूं भी अपने यहां लोग अक्सर मजाक में कहते ही हैं कि अगर किसी रोज मौसम विभाग दिन में खूब चटख धूप खिलने की भविष्यवाणी करे तो कृपया घर से निकलते वक्त छाता जरूर साथ रखिए क्योंकि कभी भी बारिश हो सकती है। हमारे महान वैज्ञानिकों की समझ पर वाकई तरस आता है।
मानसून की चाल भांपने में मौसम विज्ञान विभाग से यह चूक कोई पहली बार नहीं हुई है, हर साल वो ऐसी ही चूक करता है। फिर भी मौसम विज्ञान विभाग पर करोड़ों रुपया स्वाहा किया जा रहा है। याद करिए 2004 में भी मौसम विभाग ने ठीक इसी तरह यू टर्न लिया था। उस साल भी यह विभाग मार्च से ही रटने लगा था कि इस वर्ष मानसून अच्छा रहेगा और बारिश खूब होगी। लेकिन उसका यह अनुमान धरा का धरा रह गया और बरसात सामान्य से काफी कम हुई थी। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि वह भी चुनावी साल था। इससे एक शुबहा यह भी पैदा होता है कि कहीं ये चूक मौसम विभाग अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए तो नहीं करता।
यूं मौसम विभाग जिस तरह की समझ के तहत मौसम की भविष्यवाणियां करता है उसमें ऐसी चूक स्वाभाविक है वरना जो बात किसान अपनी सहज बुद्धि से जान लेते हैं उसे मौसम विभाग क्यों नहीं जान पाता? जून के तीसरे सप्ताह में भी जब पारे की रफ्तार न थमी और वह 45 पार करने लगा तो अचानक मौसम विभाग की नींद खुली और घोषणा कर दी कि अल नीनो और आइला के कारण मानसून डिले हो गया है, अब वह पंद्रह दिन बाद आएगा। लेकिन ठीक इसके उलट किसान अप्रैल में ही ताड़ गए थे कि इस साल बारिश के दिन अच्छे नहीं आने इसीलिए खरीफ की बुआई को लेकर वह कोई खास उत्साहित नहीं दिखा। यहां यह बताना दिलचस्प होगा कि आम के बाग के ठेके फरवरी तक पूरे हो जाते हैं।
पर इस साल अमराइयों के ठेकों के बाबत किसानों ने कोई खास उत्साह नहीं दिखाया था क्योंकि माघ पूस में ही पारे की रफ्तार से वे ताड़ गए थे कि इस साल असली दशहरी नहीं मिलने वाला। इसकी वजह है कि बगैर मानसूनी फुहार के आम पकता नहीं। मानसून की रफ्तार का अंदाज उन्होंने दिसंबर और जनवरी की ठंड से लगा ली थी। जिस बात को किसान छह महीने पहले समझ गया था उसी बात को समझने में हमारे मौसम वैज्ञानिकों ने महीनों लगा दिए।
यह हमारी उसी तथाकथित वैज्ञानिक सोच का नतीजा है जिसके चलते हम अपने परंपरागत ज्ञान के बजाय उन मुल्कों के निष्कर्षों पर यकीन करते हैं जिनके यहां मौसम की चाल हमारे देश के सर्वथा प्रतिकूल है। हम भूल जाते हैं कि अल नीनो या आइला का असर वहां पड़ेगा जहां आमतौर पर मौसम पूरे साल रौद्र रूप धारण किए रहता हैं, जहां हमारे यहां की तरह षडऋतुएं नहीं होतीं।
हालांकि हमारे यहां के मौसम और कृषि वैज्ञानिक षडऋतुओं की हमारी परंपरागत समझ को स्वीकार नहीं करते। लेकिन अगर ऋतुएं छह नहीं होतीं तो हम न तो वसंत जान पाते न शरद और न ही हेमंत। हमारे ज्ञान के वैशिष्टय का अंग्रेजों ने सरलीकरण कर दिया था और ऋतुएं घटाकर तीन कर दी गईं तथा दिशाएं चार बताई गईं। लेकिन फिर भी हमारे किसान अपने दिमाग में षडऋतुओं और दश दिशाओं का दर्शन पाले रहे जिसके बूते वे अपने मौसम की चाल को करीब साल भर पहले ही भांप जाते हैं। हमारे सारे त्योहार अंग्रेजों के मानसून की तरह नहीं हमारे अपने षडऋतु चक्र से नियंत्रित होते हैं। इसीलिए वे अपने निर्धारित समय पर ही आते और जाते हैं। अल नीनो या आइला जैसे अवरोध यहां कभी नहीं रहे लेकिन सूखे को हमारे किसानों ने खूब झेला है इसीलिए उन्होंने अपने अनुभव और आकलन से बादलों की गति को नक्षत्रों के जरिए समझने की कोशिश की और वे सफल रहे।
वर्षा के स्वागत में तमाम मंगलगीत और ऋचाएं लिखी गईं हैं। कालिदास ने अपने ऋतु संहार में वर्षा का वर्णन करते हुए लिखा है- वर्षा ऋतुओं में सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि यह प्रेमीजनों के चित्त को शांत करती है। पूरे भारतीय समाज में वर्षा के स्वागत की परंपरा है, सिर्फ किसान ही नहीं हर व्यक्ति यहां वर्षा के लिए व्याकुल है। चौदहवीं शताब्दी के मशहूर सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने बरसात की शुरुआत आसाढ़ से बताई है-

चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा, साजा बिरह दुंद दल बाजा।

धूम साम धौरे घन आए, सेत ध्वजा बग-पांत दिखाए॥

खडग बीज चमकै चहं ओरा, बुंद बान बरसहिं घनघोरा।

ओनई घटा आन चहुं फेरी, कंत उबार मदन हौं घेरी॥

दादुर मोर कोकिला पीऊ, गिरै बीज घट रहे न जीऊ।

पुष्प नखत सिर ऊपर आवा, हौं बिन नाह मंदिर को छावा।

अदरा लागि, लागि भुईं लेई, मोहि बिन पिउ को आदर देई॥

जायसी ने भी वर्षा को प्रेमीजनों से ही जोड़ा है। लेकिन वर्षा हमारी समृद्धि और खुशहाली से भी जुड़ी है। अगर वर्षा रूठ जाए तो आसन्न विपदा को रोका नहीं जा सकता। इसीलिए राज्य को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वर्षा न होने पर राजा आने वाली विपदाओं से लड़ने की युक्ति सोचे।
मानसून शब्द अंग्रेजों ने गढ़ा था। हिंद महासागर और अरब सागर से आने वाली हवाएं मानसूनी कहलाती हैं। आम तौर पर मई के आखिरी दिनों से ये उठने लगती हैं और हिमालय की चोटियों से टकरा कर ये फिर वापस लौट आती हैं और मैदानी इलाकों में ये बरस पड़ती हैं। इन्हीं के समानांतर बंगाल की खाड़ी से भी ऐसी हवाएं उठती हैं और बंगाल व छोटा नागपुर के पठारी इलाकों में बरसती हैं। अल नीनो का मतलब है वे हवाएं जो प्रशांत महासागर से उठती हैं और गर्म हो जाने के कारण वे बरसती नहीं। इन हवाओं का हिंदुस्तान की सरजमीं से कोई ताल्लुक नहीं है।
बंगाल की खाड़ी में हवाओं के विक्षोभ से जो पिछले दिनों तबाही आई थी उसे वैज्ञानिकों ने आइला का नाम दिया है। इसी आधार पर मौसम विभाग का कहना है कि बंगाल की खाड़ी से मानसूनी हवाएं उठी ही नहीं। अब ये कितनी विरोधाभासी बातें हैं। बंगाल की खाड़ी से मानसून ज्यादा विचलित नहीं होता क्योंकि हमारे यहां असल बारिश दक्षिण पश्चिमी मानसून की वजह से होती है जिसका बंगाल की खाड़ी से कोई लेना देना नहीं है।
चूंकि भारत में किसान सदियों से इसी बारिश पर ही निर्भर हैं इसलिए वे इसकी चाल को पहचानने में कभी भूल नहीं करते। उन्हें पता रहता है कि जब जेठ के महीने में मृगशिरा नक्षत्र तपेगा तभी बारिश झूम कर होगी। गर्मी के मौसमी फल यानी तरबूज और खरबूजे भी उसी वक्त पकेंगे जब बैशाख और जेठ में लू चलेगी। लू की गरमाहट आम में मिठास पैदा करती है लेकिन पकेगा वह तब ही जब मानसून की पहली फुहार उस पर पड़ेगी। जायद की पूरी फसल लू पर निर्भर करती है। लेकिन इसे हमारे वैज्ञानिक मानने को तैयार नहीं हैं।


(लेखक शंभूनाथ शुक्ल वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों अमर उजाला, नोएडा में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं। उनका यह लेख अमर उजाला अखबार में प्रकाशित हो चुका हैं जहां से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है। शंभू जी से संपर्क करने के लिए shambhunaths@gmail.com का सहारा लिया जा सकता है)
ये कुछ पंक्तियां नीरज जी के ब्लॉग से मैंने अपने संग्रह में शामिल की है॥
इन्हें पढ़कर ऐसा लगता है कि कई अहसास ऐसे होते है जो इतने गहरे होते है कि कागज पर आते ही बेहतरीन कृति बन जाते है॥
"गुलशन की बहारों मैं, रंगीन नज़ारों मैं, जब तुम मुझे ढूंढोगे, आँखों मैं नमी होगी, महसूस तुम्हें हर दम, फिर मेरी कमी होगी...... आकाश पे जब तारे, संगीत सुनाए गे, बीते हुए लम्हों को, आँखों मैं सजाओगे, तन्हाई के शोलों मे, जब आग लगी होगी महसूस तुम्हे हर दम फिर मेरी कमी होगी, सावन की घटाओं का जब शोर सुनोगे तुम, बिखरे हुए माज़ी के राग चुनोगे तुम माहॉल के चेहरे पर जब धूल जमी होगी महसूस तुम्हे हर दम फिर मेरी कमी होगी जब नाम मेरा लोगे तुम कांप रहे होगे आंशूं भरे दामन से मुँह ढांप रहे होगे रंगीन घटाओं की जब शाम घनी होगी महसूस तुम्हें हर दम फिर मेरी कमी होगी.............. " rachana varma ke blog apni jmin apna aasman se sabhar.

सोमवार, 3 नवंबर 2008

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूथा जाऊँ
चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को लाल्ल्चौं
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊं
चाह नहीं देवों के सर चढू और भाग्य पर इतराऊँ
मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना फ़ेंक
मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जायें वीर अनेक
----------माखनलाल चतुर्वेदी

रविवार, 2 नवंबर 2008

जीवन पथ

शाश्वत वसंत की खोज में

मैं चलूँ , तुम चलो

किंतु थक हारकर लौटें न अब

आओ स्वप्न ये साकार कर लें

जीवन के गरल को पीते-पीते

अमृत का ज्ञान जागा

शाश्वत जीवन की खोज में ,

मैं चलूँ तुम चलो ।

आँधियों की इस क्रीड में,

कब तक पलते पुषते रहेंगे

जीवन के स्वर्णिम क्षण ?

कब तक कन्धों पर

शिलाओं का बोझ लिए चलना होगा,

आओ जीवन के विहान से ही,

कुछ क्षण उधार ले लें

और अमित बना डालें

अस्तित्व का सीमांकन

किंतु पथ का प्रदीप कहाँ खोजें हम ?

विवश आत्मा में , बसी हुई थकी हुई

अकुलाती सांसों की डोर को

कहाँ तक खींचें अब

इस अंतहीन यात्रा से

हम कभीं हारें न अब

आओ स्वप्न ये साकार कर लें ।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

कुछ तो सोचो

मनसे प्रमुख राज ठाकरे जो कर रहे हैं उस पर केन्द्र और महारास्ट्र सरकारों की चुप्पी आश्चर्य जनक है । केन्द्र को यह भलीभांति समझ लेना चाहिए की यही गलती किसी ज़माने में इंदिरा गाँधी ने की थी । परिणाम स्वरूप लंबे समय तक पंजाब आतंकवाद की चपेट में रहा । इस लिए मनमोहन सिंह सरकार को चाहिए की वह राज ठाकरे के रूप में दूसरा भिंडरावाले न पैदा करे । एक भिंडरावाले से देश को बड़ी मुश्किल से निजात मिली है । महाराष्ट्र में राज ठाकरे जो कर रहे हैं काफी कुछ वह संत भिंडरावाले की पंजाब में अंजाम दी गई गतिविधियों से मिलता है । बड़े ही शर्म की बात है कि चंदवोटों के लिए हमारे देश कि सरकारें अलगाववाद की राजनीति करने वालों के खिलाफ मौन साध लेती हैं । टुच्चे किस्म के नेता खुलेआम क्षेत्रवाद और भाषा के नाम पर अपने ही देश के नवजवानों का खून बहा रहे हैं । यह लोग देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। आज जो यह कर रहे हैं कल यही दूसरे प्रदेश के लोग करेंगे। फ़िर लोगों को रोकना मुश्किल हो जाएगा । इसके बावजूद केन्द्र और प्रदेश की सरकारें इस ओअर से आँख मूदे हैं । अगर देश की सरकारों का यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब भारत कई खंडों में विभाजित हो जाएगा ।