सोमवार, 3 नवंबर 2008

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूथा जाऊँ
चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को लाल्ल्चौं
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊं
चाह नहीं देवों के सर चढू और भाग्य पर इतराऊँ
मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना फ़ेंक
मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जायें वीर अनेक
----------माखनलाल चतुर्वेदी

कोई टिप्पणी नहीं: