रविवार, 2 नवंबर 2008

जीवन पथ

शाश्वत वसंत की खोज में

मैं चलूँ , तुम चलो

किंतु थक हारकर लौटें न अब

आओ स्वप्न ये साकार कर लें

जीवन के गरल को पीते-पीते

अमृत का ज्ञान जागा

शाश्वत जीवन की खोज में ,

मैं चलूँ तुम चलो ।

आँधियों की इस क्रीड में,

कब तक पलते पुषते रहेंगे

जीवन के स्वर्णिम क्षण ?

कब तक कन्धों पर

शिलाओं का बोझ लिए चलना होगा,

आओ जीवन के विहान से ही,

कुछ क्षण उधार ले लें

और अमित बना डालें

अस्तित्व का सीमांकन

किंतु पथ का प्रदीप कहाँ खोजें हम ?

विवश आत्मा में , बसी हुई थकी हुई

अकुलाती सांसों की डोर को

कहाँ तक खींचें अब

इस अंतहीन यात्रा से

हम कभीं हारें न अब

आओ स्वप्न ये साकार कर लें ।

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