पिछले हफ्ते देश के अखबारों में दो खबरें एक ही दिन प्रमुख रूप से प्रकाशित हुई। एक अमेरिका स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने हमारे देश में भुखमरी को लेकर एक इंडेक्स जारी किया जिसमें कहा गया- ‘दुनिया में भारत खाद्य-असुरक्षित आबादी का गढ़ है, जहां बीस करोड़ से ज्यादा लोगों को पेट भर भोजन नसीब नहीं है।’
दूसरी खबर में बताया गया था कि ‘दुनिया का सबसे महंगा सूट का कपड़ा, जिसके चार मीटर कपड़े की कीमत 30 लाख रुपए है, मंगलवार को दिल्ली पहुंचा।’ तीसरा न्यूज आइटम बेशक दिल्ली में चल रहे फैशन शो में कम कपड़ों में नजर आने वाली युवा लड़कियों के बारे में था। इत्तेफाक से, भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने पूरे दिन तीसरी और दूसरी घटना को ही दिखाया, जबकि पहली खबर को नजरअंदाज कर दिया, जो देश के 80 करोड़ लोगों से जुड़ी थी।
यह देश के नीति-निर्माताओं द्वारा बनाई गई भारतीय अर्थव्यवस्था में अंतर्निहित विरोधाभासों को दर्शाता है। यह विरोधाभास हाल ही जारी वैकल्पिक आर्थिक सर्वे से साफ जाहिर होता है। यह सर्वे भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं पर गौर करते हुए तैयार किया गया और इसमें देश के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने हमारी अर्थव्यवस्था की सेहत की कड़वी हकीकत को बयान किया।
वैश्विक भुखमरी इंडेक्स में भारत को 88 विकासशील देशों में 66वें स्थान पर रखा गया है। यह तथ्य और भी अशांत कर देने वाला है कि रवांडा, मलावी, नेपाल और पाकिस्तान जैसे देश भी हमसे आगे हैं। यहां तक कि नाइजीरिया, कैमरून, कीनिया और सूडान जैसे देश जिनका प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद भारत के मुकाबले ढाई गुना तक कम है, वे भी हमसे बेहतर स्थिति में हैं।
इस इंडेक्स को तैयार करने में जिन तीन बातों पर गौर किया गया, वे हैं- अपर्याप्त कैलोरी ग्रहण करने वाली आबादी का अनुपात, पांच वर्ष से कम उम्र के कम वजन के बच्चे और पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर। इन तीनों में अच्छे रुझान नहीं मिले। यह सर्वे देश के 17 राज्यों में रहने वाली देश की अस्सी फीसदी आबादी की दयनीय हालत को भी दर्शाता है। जहां तक भुखमरी की बात है तो इन 17 राज्यों में मध्य प्रदेश को ‘बेहद चिंताजनक’ वर्ग में रखा गया है। यह तथ्य और भी चौंकाने वाला है कि गुजरात और आंध्रप्रदेश जैसे राज्य जहां प्रतिव्यक्ति आय ज्यादा है, उन्हें भी ‘चिंताजनक’ वर्ग में रखा गया है, जो हमारे नीति-निर्माताओं के लापरवाह और उदासीन रवैए को दर्शाता है।
यह देखकर पीड़ा होती है कि जहां हमारे नीति-निर्माता देश की सुहावनी तस्वीर पेश करने के लिए गलत आंकड़ों का हवाला दे रहे हैं, वहीं दुनिया की सबसे ज्यादा विषमता इसी देश में मिलती है। ‘ए जर्नल ऑफ कंटेंपररी एशिया’ में जेम्स पेट्रास ने इस असमानता का आकलन करते हुए लिखा है- ‘यहां के 35 अरबपति परिवारों की संपत्ति 80 करोड़ गरीब किसानों, जमीन से महरूम ग्रामीण मजदूरों और शहरी झुग्गी-वासियों की कुल संपत्ति से ज्यादा है।’
वैकल्पिक आर्थिक सर्वे के मुताबिक सरकार का सबसे विश्वसनीय दस्तावेज- आर्थिक सर्वे 2007-08- साफ तौर पर बताता है कि 1991 से अब तक प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में काफी गिरावट आई है। इसी का नतीजा है कि भारतीय महिलाओं में एनीमिया (रक्ताल्पता) के मामले बढ़ गए हैं (एनएफएचएस-3)। दुनिया में तकरीबन 14 करोड़ 30 लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और इनमें 5 करोड़ 70 लाख (तकरीबन 47 फीसदी) भारत में हैं।
विडंबना यह है कि इसी अवधि में लोगों के विदेश जाने की दर 17 गुना बढ़ गई है और ज्यादातर मामलों में ये विदेश यात्राएं कारोबारी उद्देश्य के लिए होती हैं यानी कि भारतीय के विदेश जाने पर करों में 30 फीसदी की कटौती। विदेशी दौरों का कुल खर्च उस धनराशि से डेढ़ गुना ज्यादा है जो देश के लाखों ग्रामीण बेरोजगारों को रोजगार देने के इरादे से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत खर्च की जा रही है। यदि सरकार के अलग-अलग वर्र्षो के आर्थिक सर्वे की तुलना की जाए तो पता चलेगा कि अब भारत घरेलू विनिर्मित उत्पादों की बजाय आयातित माल का ज्यादा इस्तेमाल करता है।
वैकल्पिक आर्थिक सर्वे कुछ हालिया शोध पत्रों का हवाला देते हुए इस विरोधाभास और आर्थिक नीतियों के जन-विरोधी आयाम को दर्शाता है। यह कहता है- ‘यदि गरीबों की कुल संख्या बढ़ती है, लेकिन जनसंख्या वृद्धि की वजह से कुल आबादी में गरीबों के प्रतिशत में कमी आती है तो इसे गरीबी का बढ़ना कहें या कम होना?’ ‘कहा जाता है कि जब गरीब गरीबी से मरता है तो गरीबी की घटनाओं में कमी आती है, क्या यह गरीबी में तर्कसंगत कमी है और क्या यह गरीबी को जांचने का सही तरीका है?’ सर्वे में यह तर्क भी दिया गया कि दूसरों के बनिस्बत गरीब ज्यादा तेजी से मर रहा है।
सोमवार, 27 अक्टूबर 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें