मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008

जीवन

जब तक स्पंदन है
जीवन है , जगत है ,
पथ है, विपथ है ,
राग है , विराग है,
जीवन की साँझ है,
और सुप्रभात है,
पराई साँझों का,
उधार लिए हुए अस्तित्त्व का
सारा यह खेल है,
किंतु इस खेल में,
मन रम गया है
जब से देखा है,
अबोध से बालक का चेहरा
सृष्टि का
कलरव गान करता हुआ सावन
तेरे तन मन से भीगकर
लाल हो चुका है
और मैं स्वप्नों के वन्दनवार सजाये
चल पड़ा हूँ ईस्ट की साँझ में
तुम्हारी अभिलाषा लिए
अपना तो कुछ भी नहीं
जिस पर मैं दंभ करूँ
फ़िर भी जीवन के सारे मोह सजाये
आ गया हूँ तुम्हारे शहर की देहरी पर
स्वीकार- अस्वीकार के प्रश्न से
अनभिग्य ।

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