चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूथा जाऊँ
चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को लाल्ल्चौं
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊं
चाह नहीं देवों के सर चढू और भाग्य पर इतराऊँ
मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना फ़ेंक
मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जायें वीर अनेक
----------माखनलाल चतुर्वेदी
सोमवार, 3 नवंबर 2008
रविवार, 2 नवंबर 2008
जीवन पथ
शाश्वत वसंत की खोज में
मैं चलूँ , तुम चलो
किंतु थक हारकर लौटें न अब
आओ स्वप्न ये साकार कर लें
जीवन के गरल को पीते-पीते
अमृत का ज्ञान जागा
शाश्वत जीवन की खोज में ,
मैं चलूँ तुम चलो ।
आँधियों की इस क्रीड में,
कब तक पलते पुषते रहेंगे
जीवन के स्वर्णिम क्षण ?
कब तक कन्धों पर
शिलाओं का बोझ लिए चलना होगा,
आओ जीवन के विहान से ही,
कुछ क्षण उधार ले लें
और अमित बना डालें
अस्तित्व का सीमांकन
किंतु पथ का प्रदीप कहाँ खोजें हम ?
विवश आत्मा में , बसी हुई थकी हुई
अकुलाती सांसों की डोर को
कहाँ तक खींचें अब
इस अंतहीन यात्रा से
हम कभीं हारें न अब
आओ स्वप्न ये साकार कर लें ।
शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008
कुछ तो सोचो
मनसे प्रमुख राज ठाकरे जो कर रहे हैं उस पर केन्द्र और महारास्ट्र सरकारों की चुप्पी आश्चर्य जनक है । केन्द्र को यह भलीभांति समझ लेना चाहिए की यही गलती किसी ज़माने में इंदिरा गाँधी ने की थी । परिणाम स्वरूप लंबे समय तक पंजाब आतंकवाद की चपेट में रहा । इस लिए मनमोहन सिंह सरकार को चाहिए की वह राज ठाकरे के रूप में दूसरा भिंडरावाले न पैदा करे । एक भिंडरावाले से देश को बड़ी मुश्किल से निजात मिली है । महाराष्ट्र में राज ठाकरे जो कर रहे हैं काफी कुछ वह संत भिंडरावाले की पंजाब में अंजाम दी गई गतिविधियों से मिलता है । बड़े ही शर्म की बात है कि चंदवोटों के लिए हमारे देश कि सरकारें अलगाववाद की राजनीति करने वालों के खिलाफ मौन साध लेती हैं । टुच्चे किस्म के नेता खुलेआम क्षेत्रवाद और भाषा के नाम पर अपने ही देश के नवजवानों का खून बहा रहे हैं । यह लोग देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। आज जो यह कर रहे हैं कल यही दूसरे प्रदेश के लोग करेंगे। फ़िर लोगों को रोकना मुश्किल हो जाएगा । इसके बावजूद केन्द्र और प्रदेश की सरकारें इस ओअर से आँख मूदे हैं । अगर देश की सरकारों का यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब भारत कई खंडों में विभाजित हो जाएगा ।
मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008
जीवन
जब तक स्पंदन है
जीवन है , जगत है ,
पथ है, विपथ है ,
राग है , विराग है,
जीवन की साँझ है,
और सुप्रभात है,
पराई साँझों का,
उधार लिए हुए अस्तित्त्व का
सारा यह खेल है,
किंतु इस खेल में,
मन रम गया है
जब से देखा है,
अबोध से बालक का चेहरा
सृष्टि का
कलरव गान करता हुआ सावन
तेरे तन मन से भीगकर
लाल हो चुका है
और मैं स्वप्नों के वन्दनवार सजाये
चल पड़ा हूँ ईस्ट की साँझ में
तुम्हारी अभिलाषा लिए
अपना तो कुछ भी नहीं
जिस पर मैं दंभ करूँ
फ़िर भी जीवन के सारे मोह सजाये
आ गया हूँ तुम्हारे शहर की देहरी पर
स्वीकार- अस्वीकार के प्रश्न से
अनभिग्य ।
जीवन है , जगत है ,
पथ है, विपथ है ,
राग है , विराग है,
जीवन की साँझ है,
और सुप्रभात है,
पराई साँझों का,
उधार लिए हुए अस्तित्त्व का
सारा यह खेल है,
किंतु इस खेल में,
मन रम गया है
जब से देखा है,
अबोध से बालक का चेहरा
सृष्टि का
कलरव गान करता हुआ सावन
तेरे तन मन से भीगकर
लाल हो चुका है
और मैं स्वप्नों के वन्दनवार सजाये
चल पड़ा हूँ ईस्ट की साँझ में
तुम्हारी अभिलाषा लिए
अपना तो कुछ भी नहीं
जिस पर मैं दंभ करूँ
फ़िर भी जीवन के सारे मोह सजाये
आ गया हूँ तुम्हारे शहर की देहरी पर
स्वीकार- अस्वीकार के प्रश्न से
अनभिग्य ।
सोमवार, 27 अक्टूबर 2008
अरबपतियों के चमकते इंडिया में गरीबी की तस्वीर
पिछले हफ्ते देश के अखबारों में दो खबरें एक ही दिन प्रमुख रूप से प्रकाशित हुई। एक अमेरिका स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने हमारे देश में भुखमरी को लेकर एक इंडेक्स जारी किया जिसमें कहा गया- ‘दुनिया में भारत खाद्य-असुरक्षित आबादी का गढ़ है, जहां बीस करोड़ से ज्यादा लोगों को पेट भर भोजन नसीब नहीं है।’
दूसरी खबर में बताया गया था कि ‘दुनिया का सबसे महंगा सूट का कपड़ा, जिसके चार मीटर कपड़े की कीमत 30 लाख रुपए है, मंगलवार को दिल्ली पहुंचा।’ तीसरा न्यूज आइटम बेशक दिल्ली में चल रहे फैशन शो में कम कपड़ों में नजर आने वाली युवा लड़कियों के बारे में था। इत्तेफाक से, भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने पूरे दिन तीसरी और दूसरी घटना को ही दिखाया, जबकि पहली खबर को नजरअंदाज कर दिया, जो देश के 80 करोड़ लोगों से जुड़ी थी।
यह देश के नीति-निर्माताओं द्वारा बनाई गई भारतीय अर्थव्यवस्था में अंतर्निहित विरोधाभासों को दर्शाता है। यह विरोधाभास हाल ही जारी वैकल्पिक आर्थिक सर्वे से साफ जाहिर होता है। यह सर्वे भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं पर गौर करते हुए तैयार किया गया और इसमें देश के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने हमारी अर्थव्यवस्था की सेहत की कड़वी हकीकत को बयान किया।
वैश्विक भुखमरी इंडेक्स में भारत को 88 विकासशील देशों में 66वें स्थान पर रखा गया है। यह तथ्य और भी अशांत कर देने वाला है कि रवांडा, मलावी, नेपाल और पाकिस्तान जैसे देश भी हमसे आगे हैं। यहां तक कि नाइजीरिया, कैमरून, कीनिया और सूडान जैसे देश जिनका प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद भारत के मुकाबले ढाई गुना तक कम है, वे भी हमसे बेहतर स्थिति में हैं।
इस इंडेक्स को तैयार करने में जिन तीन बातों पर गौर किया गया, वे हैं- अपर्याप्त कैलोरी ग्रहण करने वाली आबादी का अनुपात, पांच वर्ष से कम उम्र के कम वजन के बच्चे और पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर। इन तीनों में अच्छे रुझान नहीं मिले। यह सर्वे देश के 17 राज्यों में रहने वाली देश की अस्सी फीसदी आबादी की दयनीय हालत को भी दर्शाता है। जहां तक भुखमरी की बात है तो इन 17 राज्यों में मध्य प्रदेश को ‘बेहद चिंताजनक’ वर्ग में रखा गया है। यह तथ्य और भी चौंकाने वाला है कि गुजरात और आंध्रप्रदेश जैसे राज्य जहां प्रतिव्यक्ति आय ज्यादा है, उन्हें भी ‘चिंताजनक’ वर्ग में रखा गया है, जो हमारे नीति-निर्माताओं के लापरवाह और उदासीन रवैए को दर्शाता है।
यह देखकर पीड़ा होती है कि जहां हमारे नीति-निर्माता देश की सुहावनी तस्वीर पेश करने के लिए गलत आंकड़ों का हवाला दे रहे हैं, वहीं दुनिया की सबसे ज्यादा विषमता इसी देश में मिलती है। ‘ए जर्नल ऑफ कंटेंपररी एशिया’ में जेम्स पेट्रास ने इस असमानता का आकलन करते हुए लिखा है- ‘यहां के 35 अरबपति परिवारों की संपत्ति 80 करोड़ गरीब किसानों, जमीन से महरूम ग्रामीण मजदूरों और शहरी झुग्गी-वासियों की कुल संपत्ति से ज्यादा है।’
वैकल्पिक आर्थिक सर्वे के मुताबिक सरकार का सबसे विश्वसनीय दस्तावेज- आर्थिक सर्वे 2007-08- साफ तौर पर बताता है कि 1991 से अब तक प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में काफी गिरावट आई है। इसी का नतीजा है कि भारतीय महिलाओं में एनीमिया (रक्ताल्पता) के मामले बढ़ गए हैं (एनएफएचएस-3)। दुनिया में तकरीबन 14 करोड़ 30 लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और इनमें 5 करोड़ 70 लाख (तकरीबन 47 फीसदी) भारत में हैं।
विडंबना यह है कि इसी अवधि में लोगों के विदेश जाने की दर 17 गुना बढ़ गई है और ज्यादातर मामलों में ये विदेश यात्राएं कारोबारी उद्देश्य के लिए होती हैं यानी कि भारतीय के विदेश जाने पर करों में 30 फीसदी की कटौती। विदेशी दौरों का कुल खर्च उस धनराशि से डेढ़ गुना ज्यादा है जो देश के लाखों ग्रामीण बेरोजगारों को रोजगार देने के इरादे से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत खर्च की जा रही है। यदि सरकार के अलग-अलग वर्र्षो के आर्थिक सर्वे की तुलना की जाए तो पता चलेगा कि अब भारत घरेलू विनिर्मित उत्पादों की बजाय आयातित माल का ज्यादा इस्तेमाल करता है।
वैकल्पिक आर्थिक सर्वे कुछ हालिया शोध पत्रों का हवाला देते हुए इस विरोधाभास और आर्थिक नीतियों के जन-विरोधी आयाम को दर्शाता है। यह कहता है- ‘यदि गरीबों की कुल संख्या बढ़ती है, लेकिन जनसंख्या वृद्धि की वजह से कुल आबादी में गरीबों के प्रतिशत में कमी आती है तो इसे गरीबी का बढ़ना कहें या कम होना?’ ‘कहा जाता है कि जब गरीब गरीबी से मरता है तो गरीबी की घटनाओं में कमी आती है, क्या यह गरीबी में तर्कसंगत कमी है और क्या यह गरीबी को जांचने का सही तरीका है?’ सर्वे में यह तर्क भी दिया गया कि दूसरों के बनिस्बत गरीब ज्यादा तेजी से मर रहा है।
दूसरी खबर में बताया गया था कि ‘दुनिया का सबसे महंगा सूट का कपड़ा, जिसके चार मीटर कपड़े की कीमत 30 लाख रुपए है, मंगलवार को दिल्ली पहुंचा।’ तीसरा न्यूज आइटम बेशक दिल्ली में चल रहे फैशन शो में कम कपड़ों में नजर आने वाली युवा लड़कियों के बारे में था। इत्तेफाक से, भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने पूरे दिन तीसरी और दूसरी घटना को ही दिखाया, जबकि पहली खबर को नजरअंदाज कर दिया, जो देश के 80 करोड़ लोगों से जुड़ी थी।
यह देश के नीति-निर्माताओं द्वारा बनाई गई भारतीय अर्थव्यवस्था में अंतर्निहित विरोधाभासों को दर्शाता है। यह विरोधाभास हाल ही जारी वैकल्पिक आर्थिक सर्वे से साफ जाहिर होता है। यह सर्वे भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं पर गौर करते हुए तैयार किया गया और इसमें देश के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने हमारी अर्थव्यवस्था की सेहत की कड़वी हकीकत को बयान किया।
वैश्विक भुखमरी इंडेक्स में भारत को 88 विकासशील देशों में 66वें स्थान पर रखा गया है। यह तथ्य और भी अशांत कर देने वाला है कि रवांडा, मलावी, नेपाल और पाकिस्तान जैसे देश भी हमसे आगे हैं। यहां तक कि नाइजीरिया, कैमरून, कीनिया और सूडान जैसे देश जिनका प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद भारत के मुकाबले ढाई गुना तक कम है, वे भी हमसे बेहतर स्थिति में हैं।
इस इंडेक्स को तैयार करने में जिन तीन बातों पर गौर किया गया, वे हैं- अपर्याप्त कैलोरी ग्रहण करने वाली आबादी का अनुपात, पांच वर्ष से कम उम्र के कम वजन के बच्चे और पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर। इन तीनों में अच्छे रुझान नहीं मिले। यह सर्वे देश के 17 राज्यों में रहने वाली देश की अस्सी फीसदी आबादी की दयनीय हालत को भी दर्शाता है। जहां तक भुखमरी की बात है तो इन 17 राज्यों में मध्य प्रदेश को ‘बेहद चिंताजनक’ वर्ग में रखा गया है। यह तथ्य और भी चौंकाने वाला है कि गुजरात और आंध्रप्रदेश जैसे राज्य जहां प्रतिव्यक्ति आय ज्यादा है, उन्हें भी ‘चिंताजनक’ वर्ग में रखा गया है, जो हमारे नीति-निर्माताओं के लापरवाह और उदासीन रवैए को दर्शाता है।
यह देखकर पीड़ा होती है कि जहां हमारे नीति-निर्माता देश की सुहावनी तस्वीर पेश करने के लिए गलत आंकड़ों का हवाला दे रहे हैं, वहीं दुनिया की सबसे ज्यादा विषमता इसी देश में मिलती है। ‘ए जर्नल ऑफ कंटेंपररी एशिया’ में जेम्स पेट्रास ने इस असमानता का आकलन करते हुए लिखा है- ‘यहां के 35 अरबपति परिवारों की संपत्ति 80 करोड़ गरीब किसानों, जमीन से महरूम ग्रामीण मजदूरों और शहरी झुग्गी-वासियों की कुल संपत्ति से ज्यादा है।’
वैकल्पिक आर्थिक सर्वे के मुताबिक सरकार का सबसे विश्वसनीय दस्तावेज- आर्थिक सर्वे 2007-08- साफ तौर पर बताता है कि 1991 से अब तक प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में काफी गिरावट आई है। इसी का नतीजा है कि भारतीय महिलाओं में एनीमिया (रक्ताल्पता) के मामले बढ़ गए हैं (एनएफएचएस-3)। दुनिया में तकरीबन 14 करोड़ 30 लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और इनमें 5 करोड़ 70 लाख (तकरीबन 47 फीसदी) भारत में हैं।
विडंबना यह है कि इसी अवधि में लोगों के विदेश जाने की दर 17 गुना बढ़ गई है और ज्यादातर मामलों में ये विदेश यात्राएं कारोबारी उद्देश्य के लिए होती हैं यानी कि भारतीय के विदेश जाने पर करों में 30 फीसदी की कटौती। विदेशी दौरों का कुल खर्च उस धनराशि से डेढ़ गुना ज्यादा है जो देश के लाखों ग्रामीण बेरोजगारों को रोजगार देने के इरादे से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत खर्च की जा रही है। यदि सरकार के अलग-अलग वर्र्षो के आर्थिक सर्वे की तुलना की जाए तो पता चलेगा कि अब भारत घरेलू विनिर्मित उत्पादों की बजाय आयातित माल का ज्यादा इस्तेमाल करता है।
वैकल्पिक आर्थिक सर्वे कुछ हालिया शोध पत्रों का हवाला देते हुए इस विरोधाभास और आर्थिक नीतियों के जन-विरोधी आयाम को दर्शाता है। यह कहता है- ‘यदि गरीबों की कुल संख्या बढ़ती है, लेकिन जनसंख्या वृद्धि की वजह से कुल आबादी में गरीबों के प्रतिशत में कमी आती है तो इसे गरीबी का बढ़ना कहें या कम होना?’ ‘कहा जाता है कि जब गरीब गरीबी से मरता है तो गरीबी की घटनाओं में कमी आती है, क्या यह गरीबी में तर्कसंगत कमी है और क्या यह गरीबी को जांचने का सही तरीका है?’ सर्वे में यह तर्क भी दिया गया कि दूसरों के बनिस्बत गरीब ज्यादा तेजी से मर रहा है।
रविवार, 26 अक्टूबर 2008
हिन्दुओं के लिए शर्म की बात
अखबारों और चैनलों में साध्वी प्रज्ञा की करतूतों के बारे में जो कुछ पढने और सुनने kओ मिला उससे हिन्दू समाज का सिर शर्म से झुक गया है । कोई सोच भी नहीं सकता था कि कोई साध्वी वह भी हिन्दू आतंकवाद के रास्ते पर चल पड़ेगी । बहरहाल जो भी हो आतंकवाद के रास्ते पर चलने वालों के साथ नरमी कतई नहीं बरती जानी चाहिए । वह चाहे कोई भी क्यों न हो ।
रविवार, 19 अक्टूबर 2008
इंसानियत खोता आदमी
इस भागमभाग दुनिया में इन्सान इंसानियत पूरी तरह से खो चुका है। रविवार १९ अक्टूबर की सुबह फाफामऊ के निकट एक साइकिल सवार को एक कार चालक ठोकर मारकर भाग निकला। बिचारा साइकिल से गिर पडा। गनीमत थी कि उसे चोट नहीं आई थी। मगर करवाले ने कार रोककर बूढ्रे आदमी का हाल पूछना जरूरी नहीं समझा । दूसरे लोग उसे अस्पताल ले गए । इस घटना को देखने के बाद लगा कि भारत में भी आदमी अब इंसानियत खोता जा रहा है ।
गुरुवार, 16 अक्टूबर 2008
ve bhi kya din the
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pahale log jab milte the ek doosre ka hal-chall poochhte the. magar ab mano kisi ke paas iske liye samay hi nahin hai. log bhoole hue logon ko rasta tak batane se bachte hain.uski oor dekhte tak nahin. kya yahi aadhunikata hai, yahi manavta hai. baharhal kuchh bhi ho magar sabhy samaj ke liye yah katai thik nahin hai.
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pahale log jab milte the ek doosre ka hal-chall poochhte the. magar ab mano kisi ke paas iske liye samay hi nahin hai. log bhoole hue logon ko rasta tak batane se bachte hain.uski oor dekhte tak nahin. kya yahi aadhunikata hai, yahi manavta hai. baharhal kuchh bhi ho magar sabhy samaj ke liye yah katai thik nahin hai.
मंगलवार, 14 अक्टूबर 2008
समय
वक्त
वक्त की बात है
कल तक जो हमारे
साथ था
आज किसी और के साथ है ।
जिसकी तलाश में भटकता
रहा वह उम्र भर
वह पहले से उसके पास है ।
दूसरों की कमियां नज़र आती हैं
फुटबॉल की तरह
मानों सब की सब खूबियाँ
उसी के पास हैं ।
चलो अच्छा हुआ पास उनके रहकर
यह भ्रम तो टूटा
जो हम ये सोचा करते थे
की शायद इस जहाँ में
व्ही मेरे सबसे खास हैं ।
वक्त की बात है
कल तक जो हमारे
साथ था
आज किसी और के साथ है ।
जिसकी तलाश में भटकता
रहा वह उम्र भर
वह पहले से उसके पास है ।
दूसरों की कमियां नज़र आती हैं
फुटबॉल की तरह
मानों सब की सब खूबियाँ
उसी के पास हैं ।
चलो अच्छा हुआ पास उनके रहकर
यह भ्रम तो टूटा
जो हम ये सोचा करते थे
की शायद इस जहाँ में
व्ही मेरे सबसे खास हैं ।
रविवार, 12 अक्टूबर 2008
उसे पति की कसम लेना मंजूर था भाई की नहीं
इलाहाबाद के महिला थाने में पति -पत्नी कसम को लेकर झगड रहे थे । पति का कहना था कि पत्नी अपने भाई की कसम खाकर कहे कि वह पाक -साफ है ।
मगर पत्नी इसके लिए तैयार नही थी वह पति और बेटे कि कसम खाकर यह बात कह रही थी लेकिन भाई कि कसम खाना उसे मंजूर नही थी। इसी को लेकर दोनों में तलक कि नौबत आ गई वहा मौजूद सभी लोग पत्नी को शक कि नजर से देखेने लगे १२ अक्टूबर कि इस घटना में अंत में एस ओ प्रतिमा सिंह ने महिला को जब फटकार लगे तब उसने भाई कि कसम खाई लेकिन साथ में यह जोड़ना नही भूली कि अगर उसका पति झूठी कसम खिला रहा हो तो उसकी मौत हो जाए । इससे बनते -बनते बात फिर बिगड़ गई बहरहाल लोगो के समझाने पर युवक पत्नी को ले जाने को राजी हुआ । २१वी सदी में कसम का यह महत्व देख लोग अवाक् रह गए ।
मगर पत्नी इसके लिए तैयार नही थी वह पति और बेटे कि कसम खाकर यह बात कह रही थी लेकिन भाई कि कसम खाना उसे मंजूर नही थी। इसी को लेकर दोनों में तलक कि नौबत आ गई वहा मौजूद सभी लोग पत्नी को शक कि नजर से देखेने लगे १२ अक्टूबर कि इस घटना में अंत में एस ओ प्रतिमा सिंह ने महिला को जब फटकार लगे तब उसने भाई कि कसम खाई लेकिन साथ में यह जोड़ना नही भूली कि अगर उसका पति झूठी कसम खिला रहा हो तो उसकी मौत हो जाए । इससे बनते -बनते बात फिर बिगड़ गई बहरहाल लोगो के समझाने पर युवक पत्नी को ले जाने को राजी हुआ । २१वी सदी में कसम का यह महत्व देख लोग अवाक् रह गए ।
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